आमजन के न्याय का सवाल: ‘वीआईपी सिंड्रोम’ की परछाई में

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न्याय और कैदियों के अधिकार: मौजूदा चुनौतियां और संभावित समाधान

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने रणवीर इलाहाबादिया के कथनों को अश्लील और आपत्तिजनक मानते हुए उसकी भर्त्सना की, लेकिन ये टिप्पणियां लिखित आदेश का हिस्सा नहीं बनीं। यह तीन बड़े सवाल खड़े करता है।

पहला सवाल यह है कि रणवीर ने पुलिस के सामने पेश हुए बिना ही संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत सीधे सुप्रीम कोर्ट में जमानत याचिका कैसे दायर की? दूसरा, जब आम नागरिकों के मामलों की सुनवाई महीनों तक लंबित रहती है, तो इस मामले में अर्जेंट लिस्टिंग के तहत बिना राज्य सरकार का पक्ष सुने अंतरिम जमानत कैसे दे दी गई? तीसरा, जजों ने अश्लील सामग्री पर रोक लगाने के लिए केंद्र सरकार से सख्त कदम उठाने और रिपोर्ट की मांग की, लेकिन इसका उल्लेख लिखित आदेश में क्यों नहीं हुआ?

यह विरोधाभास न्याय प्रणाली की मौजूदा स्थिति को उजागर करता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक 95 वर्षीय व्यक्ति ने अपने मामले की सुनवाई न होने पर सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट में लंबित मामलों और जजों की कमी पर सख्त टिप्पणी की थी। बावजूद इसके, वीआईपी मामलों की प्राथमिकता आम जनता के न्याय में बाधा बनती दिख रही है।

न्यायिक व्यवस्था के सामने बड़ी चुनौतियां

देश में 4.59 करोड़ से अधिक मुकदमे जिला अदालतों में लंबित हैं, जिनमें अधिकांश आपराधिक मामले हैं। न्यायिक सुधारों की बात अक्सर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट तक सीमित रहती है, जबकि असली समस्या जमीनी स्तर पर मौजूद है।

देश की 1,400 जेलों में करीब 5.3 लाख कैदी बंद हैं। इनमें से बड़ी संख्या में गरीब, अशिक्षित और वंचित वर्ग के लोग हैं, जो महंगी कानूनी प्रक्रिया के कारण न्याय से वंचित हैं। दिल्ली हाईकोर्ट का कहना है कि ट्रेनों की क्षमता से अधिक टिकट जारी करना असंवैधानिक है, तो फिर कैदियों को अमानवीय तरीके से जेलों में ठूंसना भी उसी श्रेणी में आता है।

कैदियों के अधिकार और न्याय प्रक्रिया में सुधार की जरूरत

  1. लंबे समय तक कैद का मुद्दा:
    सुप्रीम कोर्ट के जज पारदीवाला ने हाल ही में कहा कि विचाराधीन कैदियों को लंबे समय तक जेल में रखना संविधान के अनुच्छेद-21 का उल्लंघन है। कई मामलों में अदालतों ने बेगुनाह कैदियों को गलत तरीके से जेल में रखने के लिए पुलिस, सरकार और जजों को जिम्मेदार ठहराया है।
  2. एड-हॉक जजों की नियुक्ति:
    सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, हाईकोर्ट में आपराधिक अपीलों की सुनवाई के लिए एड-हॉक जज नियुक्त किए जा सकते हैं। लेकिन जब नियमित जजों की 40% सीटें खाली हैं, तो अस्थायी जजों से न्याय प्रक्रिया को सुचारू बनाना स्थायी समाधान नहीं हो सकता।
  3. दोषियों की रिहाई पर विचार:
    सीआरपीसी की धारा-432 और नए आपराधिक कानून के तहत विचाराधीन कैदियों की रिहाई सुनिश्चित करना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। लेकिन इन प्रावधानों का क्रियान्वयन धीमा और असंतोषजनक है।
  4. विधिक सेवा का अभाव:
    गरीब कैदियों के लिए विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) मौजूद है, लेकिन जज दीपांकर दत्ता के अनुसार, यह प्राधिकरण गरीबों की मदद के बजाय प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त रहता है।
  5. नए आपराधिक कानून का पालन:
    सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार, जिन कैदियों ने आधी या एक-तिहाई सजा पूरी कर ली है, उनकी रिहाई प्रक्रिया दो महीने के भीतर पूरी होनी चाहिए। लेकिन यह समय सीमा अक्सर अनदेखी की जाती है।

जरूरत है न्यायिक जवाबदेही की

आज लाखों गरीब और वंचित कैदी जेलों में बिना दोष सिद्ध हुए कैद हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को जिला अदालतों में मामलों की लंबी सूची और कैदियों की दयनीय स्थिति पर विशेष ध्यान देना होगा। न्याय प्रक्रिया में पारदर्शिता, त्वरित सुनवाई और विचाराधीन कैदियों की रिहाई को प्राथमिकता देकर ही न्याय व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है।

नेल्सन मंडेला ने कहा था, “किसी भी देश की सफलता का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाना चाहिए कि वह अपने वंचित नागरिकों के साथ कैसा व्यवहार करता है।” भारत को इस कसौटी पर खरा उतरने के लिए अपने न्यायिक तंत्र में बदलाव की आवश्यकता है।

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